
कहते हैं, जिन्दगी सिनेमा नहीं है, जहां शॉट गलत हो जाने, ठीक न होने पर रीटेक लिया जा सकता है। यह तो सीधे दुनिया के सामने रंगमंच पर खड़े होकर लाइव ही होना है। यहां रीटेक की गुंजाइश नहीं है। दुबारा मौका नहीं मिलता।
हर साल बिहार में कक्षा 10 की परीक्षा में बैठने वालों में लगभग 20 प्रतिशत यानि लगभग 3 लाख लड़के लड़कियां फेल हो जाते हैं और उनमें से ज्यादातर खासकर लड़कियां पढाई छोड़कर घर बैठ जाती हैं। प्रथम ने उन सबके लिए सेकेन्ड चांस प्रोग्राम शुरू किया है।
पटना के गायघाट मुहल्ले में ऑफिस के एक कमरे में जमीन पर बिछी दरी पर 10 लड़कियां बैठी हैं। दिन के पूर्वार्द्ध में उनकी अंग्रेज़ी की कक्षा चल रही है । क्रिया और सहायक क्रिया का अभ्यास चल रहा है ।
“अपने नाम के साथ एक वाक्य बनाकर उसे बोर्ड पर कौन लिखेगा?” इस सवाल के जवाब में चुप्पी है, वे एक दूसरे को देख रही हैं। फिर से कहने और उकसाने पर किसी ने पूछा है, “कापी में लिखना है?” कुछ के चेहरे पर संशय और संदेह झलक रहा है।
यह कहने पर कि सबको एक एक वाक्य बोर्ड पर लिखना है, वे सब एक दूसरे को देखती हैं। क्रम से यह सिलसिला जारी रहता है। सबने लिख दिया है। लगभग सबने सही वाक्य बनाए हैं।
“दसवीं पास करने के बाद क्या करना है?” इसका उत्तर सबके पास है। स्पष्ट और निश्चित । आगे और पढ़ना है, नौकरी करनी है, पुलिस बनना है, कुछ लोगों को जवाब देना है, उन लोगों को जो कहते हैं कि पढ़ लिखकर क्या करोगी?
हर एक के पास आगे पढ़ने की वजह है। अफसोस भी है कि जब समय था तो पढ़ने पर ध्यान नहीं दिया। स्कूल में मिले कुछ अप्रिय अनुभवों ने भी कुछ को स्कूल छोड़ने पर विवश किया है।
कमरे में बने रोशनदान से आती रोशनी की एक लकीर फर्श पर छोटा सा घेरा बना रही है। भूरे मटमैले फर्श का उतना हिस्सा पीली धूप से आलोकित हो उठा है।
मैं उनसे कहता हूं कि वे अपने बारे में कुछ बताएं लेकिन वैसे नहीं जैसे अपने बारे में दो तीन वाक्य बोले जाते हैं। कुछ ऐसा जैसे वे किसी और के बारे में बता रहीं हों। वे सोच में पड़ गईं हैं और उनके मन का संशय उनके चेहरे पर दिखता है। लेकिन जब शुरूआत हो गयी तो जैसे उनकी कहानी का कोई अंत नहीं था। कह लेने के बाद एक संतोष भी था ।
“आपने अपने बारे में जो कुछ सुनाया है, उसे आप लिखेंगी?” सबने हामी भरी है। उनकी कहानी उन्हीं की कलम से, इसका इंतज़ार है |
– सर्वेंद्र विक्रम, एडवाइज़र, प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन
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